सावन में क्यों होती है शिव पूजा, जानते है वास्तु शास्त्री डॉ सुमित्रा से की कैसे पड़ा इस महीने का नाम
कोलकाता। सावन में क्यों होती है शिव पूजा, कैसे पड़ा इस महीने का नाम
सावन ३१ अगस्त तक रहेगा। शिव के महीने के तौर पर शिवरात्र के बाद भी शिव आराधना की जाती रहेगी। शिव की आराधना के दौरान रूद्राभिषेक के बाद बिल्वपत्र और भस्म चढ़ाने समेत कई परंपराए शामिल हैं, लेकिन ऐसा क्यों है? क्यों शिवजी को सावन का महीना पसंद है और इस महीने का नाम सावन कैसे पड़ा…? आइए समझते हैं शिव पूजा की परंपराएं और कथाओं से…
सावन, दक्षिणायन में आता है। जिसके देवता शिव हैं, इसीलिए इन दिनों उन्हीं की आराधना शुभ फलदायक होती है। सावन के दौरान बारिश का मौसम होता है। पुराणों के मुताबिक शिवजी को चढ़ने वाले फूल-पत्ते बारिश में ही आते हैं इसलिए सावन में शिव पूजा की परंपरा बनी।
स्कंद पुराण में भगवान शिव ने सनत्कुमार को सावन महीने के बारे में बताया कि मुझे श्रावण बहुत प्रिय है। इस महीने की हर तिथि व्रत और हर दिन पर्व होता है, इसलिए इस महीने नियम-संयम से रहते हुए पूजा करने से शक्ति और पुण्य बढ़ते हैं।
इस महीने का नाम श्रावण क्यों
स्कंद और शिव पुराण के हवाले से जानकार इसकी दो वजह बताते हैं। पहली, इस महीने पूर्णिमा तिथि पर श्रवण नक्षत्र होता है। इस नक्षत्र के कारण ही महीने का ये नाम पड़ा।
दूसरी वजह, भगवान शिव ने सनत्कुमार को बताया कि इसका महत्व सुनने के योग्य है। जिससे सिद्धि मिलती है, इसलिए इसे श्रावण कहते हैं। इसमें निर्मलता का गुण होने से ये आकाश के समान है, इसलिए इसे नभा भी कहा गया है।
सावन का महत्व बताते हुए महाभारत के अनुशासन पर्व में अंगिरा ऋषि ने कहा है कि जो इंसान मन और इन्द्रियों को काबू में रखकर एक वक्त खाना खाते हुए श्रावण मास बिताता है, उसे कई तीर्थों में स्नान करने जितना पुण्य मिलता है।
शिव से जुड़ी ३ कहानियां…
पार्वती की परीक्षा –
देवी सती ने ही पार्वती के रूप में दूसरा जन्म लिया था। इस जन्म में भी शिव को पति के रूप में पाने के लिए वे कठिन तप कर रही थीं। शिव ने पहले सप्तर्षियों को परीक्षा के लिए भेजा। सप्तर्षियों ने पार्वती के पास पहुंचकर शिवजी की बहुत बुराई की, उनके दोष गिनाए, लेकिन पार्वती अपने संकल्प पर अडिग रहीं। इसके बाद महादेव खुद आए। उन्होंने पार्वती जी को वरदान दिया और अंतर्धान हो गए।
तभी एक बच्चे की आवाज सुनाई दी। पार्वती जहां तप कर रही थीं, उसी के पास मौजूद तालाब में मगरमच्छ ने एक बच्चे का पैर पकड़ रखा था। पार्वती वहां पहुंचीं और मगरमच्छ से बच्चे को छोड़ने को कहा। मगरमच्छ ने अपना नियम बताते हुए इनकार किया कि दिन के छठे पहर में जो मिलता है, उसे आहार बना लेता हूं। इस पर पार्वती ने पूछा, इसे छोड़ने के बदले क्या चाहोगे? मगरमच्छ ने कहा, अपने तप का फल मुझे दे देंगी, तो बालक को छोड़ दूंगा।
पार्वती तत्काल तैयार हो गईं, पर मगरमच्छ ने उन्हें समझाया कि वे क्यों एक बालक के लिए अपने कठिन तप का फल दे रही हैं, लेकिन पार्वती ने दान का संकल्प किया। उनके ऐसा करते ही मगर का शरीर चमकने लगा। अचानक बच्चा और मगर, दोनों गायब हो गए और उनकी जगह शिव प्रकट हुए। उन्होंने बताया कि वो परीक्षा ले रहे थे। चूंकि पार्वती ने अपने तप का फल शिव को ही दिया था, इसलिए उन्हें दोबारा तप करने की जरूरत नहीं रही।
कामदेव को भस्म किया –
शिव को कामांतक भी कहते हैं। इसके पीछे कथा है। तारकासुर ने ब्रह्माजी से दो वरदान पाए थे। पहला, तीनों लोकों में उसके समान ताकतवर कोई न हो और दूसरा, शिवपुत्र ही उसे मार सके। तारकासुर जानता था कि देवी सती के देहांत के बाद शिव समाधि में जा चुके हैं, जिससे शिवपुत्र होना असंभव था। वरदान पाकर तारकासुर ने तीनों लोकों को जीत लिया। उसके अत्याचार से परेशान होकर देवता ब्रह्माजी के पास गए।
उन्होंने देवताओं को वरदान के बारे में बताते हुए कहा कि केवल शिवपुत्र ही तारकासुर को मार सकता है, लेकिन शिवजी गहरी समाधि में हैं। हिमवान की पुत्री पार्वती शिव से विवाह के लिए तप कर रही हैं, लेकिन वे पार्वती की तरफ देखना भी नहीं चाहते, अगर महादेव पार्वती से विवाह कर पुत्र उत्पन्न करें, तभी इस दैत्य का वध संभव है।
तब इंद्र ने कामदेव से कहा कि वे जाकर शिवजी के मन में देवी पार्वती के प्रति अनुराग जगाएं। कामदेव ने पुष्पबाण ध्यानमग्न शिवजी पर चला दिया। अचानक इस विघ्न से शिवजी बेहद गुस्सा हुए और उन्होंने तीसरे नेत्र से कामदेव को भस्म कर दिया ।
इस पर कामदेव की पत्नी रति ने शिवजी से प्रार्थना की कि वे उसके पति का जीवन वापस लौटा दें। शिव ने शांत होकर कहा, कामदेव की देह नष्ट हुई है, लेकिन उसकी आंतरिक शक्ति नहीं। “काम’ अब देह रहित होकर हर प्राणी के हृदय में रहेगा। वह कृष्णावतार के समय कृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न के रूप में जन्म लेगा। तुम फिर उसकी पत्नी बनोगी। उस समय रति ने मायावती के रूप में जन्म लिया था।
अशुभ से हुआ शुभ –
नर्मदा नदी के किनारे धर्मपुर नाम का सुंदर नगर था। उसमें विश्वानर नाम का ब्राह्मण अपनी पत्नी सुचिस्मति के साथ रहता था। दोनों शिव भक्त थे और उन्होंने पुत्र पाने के लिए उनसे वरदान मांगा कि स्वयं भगवान शिव उनके पुत्र के रूप में जन्म लें।
शिव के वरदान से उनके यहां एक पुत्र का जन्म हुआ, जिसका नाम गृहपति था। जब बालक ग्यारह साल का था, तब देवर्षि नारद ने उसका हाथ देखकर भविष्यवाणी की कि सालभर के भीतर उसके साथ कुछ अशुभ होगा, जो आग से जुड़ा होगा। जब मां-बाप ये सुनकर दुखी हुए, तो बेटे ने उन्हें सांत्वना देते हुए कहा कि वे दुखी न हों, क्योंकि वह भगवान को प्रसन्न कर लेगा। इससे अनिष्ट टल जाएगा।
माता-पिता से आज्ञा लेकर वह शिव की नगरी काशी पहुंचा। वहां उसने गंगा के मणिकर्णिका घाट पर स्नान किया और पूरे साल शिवलिंग की पूजा की। जब नारद मुनि द्वारा बताया अनिष्ट समय आया, तो देवराज इंद्र ने प्रकट होकर उससे वरदान मांगने को कहा। बालक ने वरदान लेने से मना किया और कहा वो केवल भगवान शिव से ही वर प्राप्त करेगा।
ये सुनकर इंद्र बहुत गुस्सा हुए और उन्होंने इस बालक को सबक सिखाने के लिए वज्र उठा लिया। बालक ने भगवान शिव से रक्षा की याचना की। तभी शिव प्रकट होकर बोले- डरो मत। मैं तुम्हारी परीक्षा लेने के लिए इंद्र के वेश में आया था। मैं तुम्हें अग्नीश्वर नाम देता हूं। तुम आग्नेय दिशा (दक्षिण-पूर्व दिशा) के रक्षक होगे। जो भी तुम्हारा भक्त होगा, उसको अग्नि, बिजली या अकाल मृत्यु का डर नहीं होगा। अग्नि को शिव का एक रूप कहते हैं। वो शिव का तीसरा नेत्र भी है।