वास्तु जाने और सीखे – भाग ८ वास्तु शास्त्री डॉ सुमित्रा अग्रवाल जी से सेलिब्रिटी वास्तु शास्त्री डॉ सुमित्रा अग्रवाल कोलकाता सिटी प्रेजिडेंट इंटरनेशनल वास्तु अकादमी

RAKESH SONI

वास्तु जाने और सीखे – भाग ८ वास्तु शास्त्री डॉ सुमित्रा अग्रवाल जी से सेलिब्रिटी वास्तु शास्त्री डॉ सुमित्रा अग्रवाल कोलकाता सिटी प्रेजिडेंट इंटरनेशनल वास्तु अकादमी यूट्यूब वास्तु सुमित्रा

 

कोलकाता। सूत जी ऋषियों से वास्तु पुरुष के किस अंग में कौनसे देव है वो बताते है। सूत जी ये भी बताते है की गृहारम्भ के समय गृह स्वामी के जिस अंग में समस्या हो उस ज़मीन के उसी भाग में कोई दोष होता है उसे दूर करना चाहिए , इसके पश्चात ही निर्माण करना चाहिए।

सूत जी कहते है -ऊर्वोऽर्यमाम्बुपौ ज्ञेयौ जान्वोर्गन्धर्वपुष्पकौ । 

जङ्घयोभृङ्गसुग्रीवौ स्फिक्स्थौ दौवारिको मृगः ॥ ४५

अर्थात – उर्वा भाग पर यम और वरुण, घुटनों पर गन्धर्व और पुष्पक।

दोनों जंघों पर क्रमशः भृङ्ग और सुग्रीव, दोनों नितम्बों पर दौवारिक और मृग।। 

जयशक्रौ तथा मेद्रे पादयोः पितरस्तथा । 

मध्ये नवपदे ब्रह्मा हृदये स तु पूज्यते ॥ ४६ 

अर्थात – लिङ्ग स्थान पर जय और शक्र तथा पैरों पर पितृगण स्थित हैं। 

मध्य के नौ पदों में जो हृदय कहलाता है उस स्थान में ब्रह्माकी पूजा होती है ॥ ४६

चतुःषष्टिपदो वास्तुः प्रासादे ब्रह्मणा स्मृतः । 

ब्रह्मा चतुष्पदस्तत्र कोणेष्वर्धपदस्तथा ॥ ४७ 

अर्थात – ब्रह्मा ने निर्माण में चौंसठ पदों वाले वास्तु को श्रेष्ठ बतलाया है। 

उसके चार पदों में ब्रह्मा तथा उनके कोणों में आपवत्स, सविता आदि आठ देवगण स्थित हैं। 

बहिष्कोणेषु वास्तौ तु सार्धाश्चोभयसंस्थिताः। 

विंशतिद्विपदाश्चैव चतुःषष्टिपदे स्मृताः ॥ ४८

अर्थात – वास्तु के बाहर वाले कोणों में भी अग्नि आदि आठ देवताओं का निवास है तथा दो पदों में जयन्त आदि बीस देवता स्थित हैं। 

इस प्रकार चौंसठ पद वाले वास्तु चक्र में देवताओं की स्थिति बतलायी गयी है। 

गृहारम्भेषु कण्डूतिः स्वाम्यङ्गे यत्र जायते । 

शल्यं त्वपनयेत् तत्र प्रासादे भवने तथा ॥ ४९ 

अर्थात – गृहारम्भ के समय गृहपति के जिस अङ्ग में खुजली जान पड़े, महल तथा भवन में वास्तु के उसी अङ्ग पर गड़ी हुई शल्य या कील को निकाल देना चाहिय। 

सशल्यं भयदं यस्मादशल्यं शुभदायकम् । 

हीनाधिकाङ्गतां वास्तो: सर्वथा तु विवर्जयेत् ॥ ५०

अर्थात- शल्य सहित गृह भय दायक और शल्य रहित कल्याण कारक होता है। वास्तु का अधिक एवं हीन अङ्ग का होना सर्वथा त्याज्य है। इसी प्रकार नगर, ग्राम और देश-सभी जगह पर इन दोषोंका परित्याग करना चाहिये। 

चतुःशालं त्रिशालं च द्विशालं चैकशालकम् । 

नामतस्तान् प्रवक्ष्यामि स्वरूपेण द्विजोत्तमाः ॥ ५१

अर्थात -चतुःशाल, त्रिशाल, द्विशाल तथा एकशाल वाले भवनों का नाम और स्वरूप का वर्णन आगे बताएँगे ।।

Advertisements
Advertisements
Share This Article
error: Content is protected !!