वास्तु जाने और सीखे – भाग ४ वास्तु शास्त्री डॉ सुमित्रा अग्रवाल जी से
सेलिब्रिटी वास्तु शास्त्री डॉ सुमित्रा अग्रवाल कोलकाता
सिटी प्रेजिडेंट इंटरनेशनल वास्तु अकादमी
यूट्यूब वास्तु सुमित्रा
कोलकाता । सूत जी ऋषियों से रहस्यमय वास्तु चक्र के निर्माण की विधि बताई। आज हम जानेंगे की वास्तु चक्र कैसे बनता है और देवताओ की उपस्थिति के विषय में। ये भी जानेंगे की बहार में कितने देवता है और भीतर कितने देवता है।
सूत जी कहते है –
शुभदः सर्ववर्णानां प्रासादेषु गृहेषु च ।
रनिमात्रमधोगर्त्ते परीक्ष्यं खातपूरणे ॥ १६
अर्थात – यदि वास्तुदीपक चारों दिशाओंमें जलता रहे तो प्रासाद एवं साधारण गृह-निर्माणके लिये वहाँ की भूमि सभी वर्णों के लिये शुभ दायिनी है।
एक हाथ गहरा गड्ढा खोदकर उसे उसी मिट्टीसे पूर्ण करते समय इस प्रकार परीक्षा करे।
अधिके श्रियमाप्नोति न्यूने हानिं समे समम् ।
फालकृष्टेऽथवा देशे सर्वबीजानि वापयेत् ॥ १७
अर्थात – यदि मिट्टी शेष रह जाय तो श्रीकी प्राप्ति होती है, न्यून हो जाय तो हानि होती है तथा सम रहनेसे समभाव होता है। अथवा भूमिको हलद्वारा जुतवाकर उसमें सभी प्रकारके बीज बो दे।
त्रिपञ्चसप्तरात्रे च यत्रारोहन्ति तान्यपि ।
ज्येष्ठोत्तमा कनिष्ठा भूर्वर्जनीयतरा सदा ॥ १८
अर्थात – यदि वे बीज तीन, पाँच तथा सात रातों में अङ्कुरित हो जाते हैं तो उनके फल इस प्रकार जानने चाहिये।
तीन रातवाली भूमि उत्तम, पाँच रातवाली भूमि मध्यम तथा सात रातवाली कनिष्ठ है।
कनिष्ठ भूमिको सर्वथा त्याग देना चाहिये ।
पञ्चगव्यौषधिजलैः परीक्षित्वा च सेचयेत् ।
एकाशीतिपदं कृत्वा रेखाभिः कनकेन च ॥ १९
अर्थात – इस प्रकार भूमि-परीक्षा कर पञ्चगव्य और ओषधियोंके जलसे भूमिको सींच दे और सुवर्ण की सलाई द्वारा रेखा खींचकर इक्यासी कोष्ठ बनावे।
पश्चात् पिष्टेन चालिप्य सूत्रेणालोड्य सर्वतः ।
दश पूर्वायता लेखा दश चैवोत्तरायताः ॥ २०
अर्थात – कोष्ठ बनाने की विधि – पिष्टकसे चुपड़े हुए सूत से दस रेखाएँ पूर्व से पश्चिम तथा दस रेखाएँ उत्तर से दक्षिण की ओर खींचे।
सर्ववास्तुविभागेषु विज्ञेया नवका नव ।
एकाशीतिपदं कृत्वा वास्तुवित् सर्ववास्तुषु ॥ २१
अर्थात –
सभी प्रकार के वास्तु-विभागों में इस नव-नव (९x९) इक्यासी कोष्ठ का वास्तु जानना चाहिये। वास्तु शास्त्र को जानने वाला सभी प्रकार के वास्तु सम्बन्धी कार्यों में इसका उपयोग करे ॥ २१
पदस्थान् पूजयेद् देवांस्त्रिंशत् पञ्चदशैव तु ।
द्वात्रिंशद् बाह्यतः पूज्याः पूज्याश्चान्तस्त्रयोदश ॥ २२
अर्थात – फिर उन कोष्ठों में स्थित पैंतालीस देवताओं की पूजा करे। उनमें बत्तीस की बाहर से तथा तेरह की भीतर से पूजा करने चाहिए।