वास्तु जाने और सीखे – भाग ११ वास्तु शास्त्री डॉ सुमित्रा अग्रवाल से 

RAKESH SONI

वास्तु जाने और सीखे – भाग ११ वास्तु शास्त्री डॉ सुमित्रा अग्रवाल से 

सेलिब्रिटी वास्तु शास्त्री डॉ सुमित्रा अग्रवाल कोलकाता

सिटी प्रेजिडेंट इंटरनेशनल वास्तु अकादमी

कोलकाता। लम्बाई और चौड़ाई के आधार पर भूमि आयताकार और वर्गाकार आक्रृतियाँ कहलाती है। वास्तु में भूमि की आकृति का विशेष महत्व है।  

सूत जी ऋषियों को निर्माण में व्यक्ति विशेष के कार्य करने के आधार पर निर्माण की योजना बताते है और वास्तु उलंघन के दुष्परिणाम की भी चर्चा करते है। 

सूत जी कहते है –

अकालमृत्युभयदं परचक्रभयावहम्। 

धनाख्यं पूर्वयाम्याभ्यां शालाभ्यां यद् शालकम् ॥ ११

अर्थात – वह अकालमृत्यु तथा शत्रुपक्ष से भय उत्पन्न करनेवाला होता है। 

जो पूर्व और दक्षिण की शालाओं से युक्त द्विशाल भवन हो, उसे ‘धन’ कहते हैं। 

तच्छस्त्रभयदं नॄणां पराभवभयावहम् । 

चुल्ली पूर्वापराभ्यां तु सा भवेन्मृत्युसूचनी ॥ १२

अर्थात – वह मनुष्यों के लिये शस्त्र तथा पराजय का भय उत्पन्न करने वाला होता है। 

इसी प्रकार केवल पूर्व तथा पश्चिम की ओर बना हुआ ‘चुल्ली’ नामक द्विशाल भवन मृत्यु सूचक है। 

वैधव्यदायकं स्त्रीणामनेक भयकारकम् । 

कार्यमुत्तरयाम्याभ्यां शालाभ्यां भयदं नृणाम् ॥ १३

अर्थात – वह स्त्रियों को विधवा करने वाला तथा अनेकों प्रकार का भय उत्पन्न करने वाला होता है। 

केवल उत्तर एवं दक्षिण की शालाओं से युक्त द्विशाल भवन मनुष्यों के लिये भयदायक होता है। 

सिद्धार्थवज्रवर्ण्याणि द्विशालानि सदा बुधैः । 

अथातः सम्प्रवक्ष्यामि भवनं पृथिवीपतेः ॥ १४ 

अर्थात – अतः ऐसे भवन को नहीं बनवाना चाहिये। 

बुद्धिमानों को सदा सिद्धार्थ और वज्र से भिन्न १ द्विशाल भवन बनवाना चाहिये ॥ 

पञ्चप्रकारं तत् प्रोक्तमुत्तमादिविभेदतः । 

अष्टोत्तरं हस्तशतं विस्तरश्चोत्तमो मतः ॥ १५ 

अर्थात – राजभवन उत्तम आदि भेद से पाँच प्रकार का कहा गया है। एक सौ आठ हाथ के विस्तारवाला राजभवन उत्तम माना गया है। अन्य चार प्रकार के भवनों में विस्तार क्रमशः आठ- आठ हाथ कम होता जाता है।। 

चतुर्ष्वन्येषु विस्तारो हीयते चाष्टभिः करैः । 

चतुर्थांशाधिकं दैर्घ्यं पञ्चस्वपि निगद्यते ॥ १६ 

अर्थात – पाँचों प्रकार के भवनों में लम्बाई विस्तार के चतुर्थांश से अधिक होती है। पाँच प्रकार के भवनों में उत्तम भवनकी चौड़ाई अस्सी हाथ की होती है। 

युवराजस्य वक्ष्यामि तथा भवनपञ्चकम् । 

षड्भिः षड्भिस्तथाशीतिर्हीयते तत्र विस्तरात् ॥ १७ 

अर्थात – युवराज के पाँच प्रकार के भवनों का वर्णन। उसमें उत्तम भवनकी चौड़ाई अस्सी हाथकी होती है। 

अन्य चारकी चौड़ाई क्रमशः छः-छः हाथ कम होती जाती है। 

त्र्यंशेन चाधिकं दैर्घ्यं पञ्चस्वपि निगद्यते । 

सेनापतेः प्रवक्ष्यामि तथा भवनपञ्चकम् ॥ १८ 

अर्थात – इन पाँचों भवनों की लम्बाई चौड़ाई से एक तिहाई अधिक कही गयी है।

सेनापति के पाँच प्रकार के भवनों का वर्णन। 

चतुःषष्टिस्तु विस्तारात् षड्भिः षभिस्तु हीयते । 

पञ्चस्वेतेषु दैर्घ्यं च षड्भागेनाधिकं भवेत् ॥ १९ 

अर्थात – उसके उत्तम भवन की चौड़ाई चौंसठ हाथ की मानी गयी है। 

अन्य चार भवनों की चौड़ाई क्रमशः छः-छः हाथ कम होती जाती है। 

इन पाँचों की लम्बाई चौड़ाई के षष्ठांश से अधिक होनी चाहिये।

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