अधिक मास को कैसे मिला पुरुषोत्तम मास का नाम जानते है वास्तु शास्त्री डॉ सुमित्रा से 

RAKESH SONI

अधिक मास को कैसे मिला पुरुषोत्तम मास का नाम जानते है वास्तु शास्त्री डॉ सुमित्रा से 

कोलकाता। अधिक मास को पुरुषोत्तम मास भी कहा जाता है, क्योंकि इसके स्वामी भगवान श्री हरि विष्णु है. मान्यता है कि इस मास में किए गए धार्मिक कार्यों और पूजा पाठ का अधिक फल प्राप्त होता है और मोक्ष की प्राप्ति होती है।

इन नामों से भी जानते हैं.. क्या है महत्व

मल मास पुरुषोत्तम मास, अधिक मास या अधिमास के नाम से भी जाना जाता है। सामान्यतः अधिक मास ३२ महीने १६ दिन और ४ घड़ी के अंतर से आता है। ग्रंथों में प्रति २८ मास के पश्चात और ३६ मास से पहले अधिक मास होने की बात कही गई है। वर्ष के १२ महीनों में सूर्य क्रम से १२ राशियों (मेष से मीन राशि तक) पर आता है। अधिक मास में सूर्य का किसी राशि पर संक्रमण नहीं होता, इसी कारण यह एक माह अलग ही रह जाता है। अलग रह गए इसी माह को अधिक मास कहा जाता है। कहा गया है कि जिस मास में सूर्य का किसी राशि पर संक्रमण न हो वह अधिकमास और एक ही मास में दो संक्रांति हों तो वह क्षयमास कहलाता है। अगर किसी महीने में सूर्य संक्रांति का अभाव हो और द्विसंक्रांति संयुक्त क्षयमास के पूर्व अपर में हो तो दोनों मलमास क्रमश: संसर्प तथा अहंस्पति कहे जाते हैं, अगर किसी वर्ष में दो अधिक मास होते हैं तब पहले को संसर्प तथा दूसरे को अहंस्पति कहा जाता है। इनमें संसर्प श्रेष्ठ माना गया है, इसी कारण दूसरे अधिक मास को मलमास कहा गया है। जिस मास में अर्क संक्रमण होता है उसमें वेदविहित मंगल कार्य किए जा सकते हैं किन्तु संसर्प में सूर्य संक्रांति न होने से मंगल कार्य नहीं किए जा सकते। शास्त्रानुसार पहले संसर्प मास में मंगल कार्य वर्ति है किन्तु पैतृक श्राद्ध किया जा सकता है।

अर्थात प्रत्येक वर्ष माता-पिता की मरण तिथि पर जिस प्रकार श्राद्ध कर्म करते आ रहे हो वैसा ही श्राद्ध मलमास में वह तिथि उपस्थित होने पर करना चाहिए। अधिक मास का एक नाम पुरुषोत्तम भी है। अत: इस मास की बहुत महिमा है।

अधिक मास की कथा

प्राचीन काल में जब अधिक मास की उत्पत्ति हुई तब उस माह में सूर्य संक्रांति नहीं थी और न ही उस माह का कोई स्वामी था। इसी कारण उस माह को मंगल कार्य एवं श्राद्ध आदि के लिए निषिद्ध माना जाने लगा। इस व्यवहार से मलमास बहुत व्यथित हुआ और अपना धीरज खोने लगा। वह दुखी होकर बैकुंठ पहुंचा और भगवान विष्णु के समक्ष दुखी होकर कहने लगा। तभी विष्णु ने पूछा, ‘‘तुम कौन हो? वैकुंठ में दुख, शोक, मृत्यु आदि का प्रवेश निषेध है? ऐसे धाम में आकर भी तुम क्यों शोकग्रस्त हो?’’

भगवान की प्रेम भरी वाणी सुनकर मलमास बोला, ‘‘मैं मलमास हूं। विश्व में क्षण, लव, मुहूर्त, पक्ष, मास, दिन-रात सभी अपने-अपने अधिपतियों के संरक्षण में रहकर आनंद मनाते हैं। एक मैं ही अभागा हूं जिसका कोई अधिपति नहीं है। संसार के लोग मुझे निंदनीय समझकर मेरा तिरस्कार कर रहे हैं। मैं आपकी शरण में आया हूं। मुझ पर कृपा करें।’’

मलमास की ऐसी दशा देख कर भगवान थोड़े समय के लिए चिंतित हो गए। कुछ समय पश्चात वे बोले, ‘‘तुम मेरे साथ भगवान श्री कृष्ण के धाम चलो, वे अवश्य ही तुम्हारे दुख का निवारण करेंगे।’’ ऐसा कह कर मलमास को लेकर गोलोक की ओर चल पड़े।

श्री कृष्ण के प्रताप से वहां शोक, भय, दुख, बुढ़ापा, मृत्यु या रोग का नाम नहीं था। श्री कृष्ण पीताम्बर पहने हुए वहां विराजमान थे। वहां पहुंच कर विष्णु और मलमास भगवान श्री कृष्ण के श्री चरणों में नत हो गए। श्री कृष्ण ने श्री विष्णु से आने का कारण पूछा।

तब विष्णु ने बताया, ‘‘यह मास अर्क संक्रमण से रहित होने के कारण मलिन हो चुका है। वेदविहित कर्मों के अयोग्य होने के कारण सब इसकी निंदा और अपमान कर रहे हैं। इसका कोई स्वामी नहीं है, इसी कारण यह बहुत व्यथित है। हे कृष्ण! आपके अतिरिक्त कोई इसके दुख का निवारण नहीं कर सकता।’’

भगवान श्री कृष्ण ने कहा, ‘‘आपने इसे यहां लाकर ठीक ही किया, इसके कष्ट निवारणार्थ मैं इसे अपने तुल्य करता हूं। मुझमें जितने भी गुण हैं उन सबको मैं मलमास को सौंप रहा हूं, मेरा जो नाम वेद, लोक और शास्त्र में विख्यात है, आज से उसी पुरुषोत्तम नाम से यह मलमास विख्यात होगा और मैं स्वयं इस मास का स्वामी हो गया हूं। जिस परमधाम में पहुंचने के लिए मुनि महर्षि तप में रत रहते हैं, वही पद पुरुषोत्तम मास में स्नान, पूजादि, अनुष्ठान करने वाले को सुगमता से प्राप्त हो जाएगा।’’

 

इस प्रकार प्रति तीसरे वर्ष पुरुषोत्तम मास के आने पर जो संसारी उपवास, पूजा, भक्ति आदि करते हैं वे परमधाम गोलोक को प्राप्त करके परम सुख का भोग करते हैं

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