वास्तु जाने और सीखे – भाग ९ वास्तु शास्त्री डॉ सुमित्रा अग्रवाल जी से से
लिब्रिटी वास्तु शास्त्री डॉ सुमित्रा अग्रवाल कोलकाता
सिटी प्रेजिडेंट इंटरनेशनल वास्तु अकादमी यूट्यूब वास्तु सुमित्रा
कोलकाता। सूत जी ऋषियों से सर्वतोभद्र के बारे में बताते है। वह ये भी बताते है की मंदिर और राजभवन के मंगल के लिए वास्तु नियमो को बताते है। सूत जी कहते है –चतुःशालं प्रवक्ष्यामि स्वरूपान्नामतस्तथा ।
चतुःशालं चतुर्द्वारैरलिन्दैः सर्वतोमुखम् ॥ १
अर्थात – चतुःशाल भवनों के स्वरूप, उनके विशिष्ट नाम।
चतुःशाल में चारों ओर भवन, द्वार तथा बरामदों से युक्त होता है , उसे ‘सर्वतोभद्र’ कहा जाता है।
नाम्ना तत् सर्वतोभद्रं शुभं देवनृपालये ।
पश्चिमद्वारहीनं च नन्द्यावर्तं प्रचक्षते ॥
अर्थात – ये देव मन्दिर तथा राजभवन के लिये मङ्गल कारक होता है।
पश्चिम द्वार के बिना स्थान को नंदीवर्त कहा जाता है।।
दक्षिणद्वारहीनं तु वर्धमानमुदाहृतम्।
पूर्वद्वारविहीनं तत् स्वस्तिकं नाम विश्रुतम् ॥
अर्थात – दक्षिण द्वार से हीन हो तो ‘वर्धमान’।
पूर्व द्वार रहित वह स्थान स्वस्तिक के नाम से विख्यात है।
रुचकं चोत्तरद्वारविहीनं तत् प्रचक्षते ।
सौम्यशालाविहीनं यत् त्रिशालं धान्यकं च तत् ॥
अर्थात – उत्तर द्वारसे विहीन हो तो ‘रुचक’ कहा जाता है।
उत्तर दिशा की शाला से रहित जो त्रिशाल भवन होता है, उसे ‘धान्यक’ कहते हैं।
क्षेमवृद्धिकरं नृणां नृणां बहुपुत्रफलप्रदम् ।
शालया पूर्वया हीनं सुक्षेत्रमिति विश्रुतम्॥
अर्थात – यह पुरुषों के कल्याण में वृद्धि करती है और पुरुषों को कई पुत्रों का फल प्रदान करती है।
यह प्राचीन धान के खेतों से रहित सुक्षेत्र के रूप में प्रसिद्ध है। धन्यं यशस्यमायुष्यं शोकमोहविनाशनम् ।
शालया याम्यया हीनं यद् विशालं तु शालया ॥
अर्थात- वह धन, यश और आयु प्रदान करने वाला तथा शोक-मोह का विनाशक होता है।
जो दक्षिण की शाला से विहीन होता है, उसे ‘विशाल’ कहते हैं।
कुलक्षयकरं नृणां सर्वव्याधिभयावहम्।
हीनं पश्चिमया यत् तु पक्षघ्नं नाम तत् पुनः ॥
अर्थात – वह मनुष्यों के कुल का क्षय करनेवाला तथा सब प्रकार की व्याधि और भय देने वाला होता है।
जो पश्चिम शाला से हीन होता है, उसका नाम ‘पक्षघ्न’ है।।
मित्रबन्धुसुतान् हन्ति तथा सर्वभयावहम्।
याम्यापराभ्यां शालाभ्यां धनधान्यफलप्रदम् ॥
अर्थात – वह मित्र, बन्धु और पुत्रों का विनाशक तथा सब प्रकार का भय उत्पन्न करने वाला होता है।
दो शालाओं से युक्त भवन को धन धान्य प्रद कहते हैं।
क्षेमवृद्धिकरं नृणां तथा पुत्रफलप्रदम् ।
यमसूर्यं च विज्ञेयं पश्चिमोत्तरशालकम् ॥ ९
अर्थात – वह मनुष्यों के लिये कल्याण का वर्धक तथा पुत्र प्रद कहा गया है।
पश्चिम और उत्तर शाला वाले भवन को ‘यमसूर्य’ नामक शाल जानना चाहिये।
राजाग्निभयदं नणां कुलक्षयकरं च यत् ।
उदक्पूर्वे तु शाले दण्डाख्ये यत्र तद् भवेत् ॥ १०
अर्थात – वह मनुष्यों के लिये राजा और अग्नि से भयदायक और कुल का विनाशक होता है।
जिस भवन में केवल पूर्व और उत्तर की ही दो शालाएँ हों, उसे ‘दण्ड’ कहते हैं।