वास्तु जाने और सीखे – भाग ७ वास्तु शास्त्री डॉ सुमित्रा अग्रवाल जी से सेलिब्रिटी वास्तु शास्त्री डॉ सुमित्रा अग्रवाल कोलकाता
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कोलकाता। सूत जी ऋषियों से वास्तु दोषो के विषय में बताते है। सूत जी बताते है वंश, स्तम्भ, कील , गढ़े से सम्बंधित बातें बताये है। वास्तु पुरुष के किस अंग में कौनसे देव है वो भी बताते है।
सूत जी कहते है – एते वंशाः समाख्याताः क्वचिच्च जयमेव तु ।
एतेषां यस्तु सम्पातः पदं मध्यं समं तथा ।। ३६
अर्थात – अब उनके वंशों के विषय में संक्षेप में कह रहे है ।
पदके मध्य में जो सम्पात है वह पद, मध्य तथा सम नामसे प्रसिद्ध है।
मर्म चैतत् समाख्यातं त्रिशूलं कोणगं च यत् ।
स्तम्भं न्यासेषु वर्ज्यानि तुलाविधिषु सर्वदा ॥ ३७
अर्थात – त्रिशूल और कोणगामी मर्म स्थल कहे जाते हैं, जो सर्वदा स्तम्भ न्यास और तुलाकी विधि में वर्जित माने गये हैं।
कीलोच्छिष्टोपघातादि वर्जयेद् यत्नतो जनः ।
सर्वत्र वास्तुनिर्दिष्टो पितृवैश्वानरायतः ॥ ३८
अर्थात – मनुष्य के लिये यत्नपूर्वक देवता के पदों पर कीलें गाड़ना, जूठन फेंकना तथा चोटें पहुँचाना वर्जित है। यह वास्तु-चक्र, सर्वत्र पितृ वैश्वानर द्वारा वास्तु का संकेत दिया जाता है।
मूर्धन्यग्निः समादिष्टो मुखे चापः समाश्रितः ।
पृथ्वीधरोऽर्यमा चैव स्कन्धयोस्तावधिष्ठितौ ॥ ३९
अर्थात – मस्तक पर अग्नि और मुख में जलका निवास है, दोनों स्कन्धों पर पृथ्वीधर तथा अर्यमा अधिष्ठित हैं।
वक्षःस्थले चापवत्सः पूजनीयः सदा बुधैः ।
नेत्रयोर्दितिपर्जन्यौ श्रोत्रे ऽदितिजयन्तकौ ॥ ४०
अर्थात – वक्षःस्थल पर आपवत्स की पूजा करनी चाहिये।
नेत्रों में दिति और पर्जन्य तथा कानों में अदिति और जयन्त हैं।
सर्पेन्द्रावंससंस्थौ तु पूजनीयाँ प्रयत्नतः ।
सूर्यसोमादयस्तद्वद् बाह्वोः पञ्च च पञ्च च ॥ ४१
अर्थात – कंधों पर सर्प और इन्द्र की पूजा करनी चाहिये।
इसी प्रकार बाहुओं में सूर्य और चन्द्रमा से लेकर पाँच-पाँच देवता स्थित हैं।
रुद्रश्च राजयक्ष्मा च वामहस्ते समास्थितौ ।
सावित्रः सविता तद्वद्धस्तं दक्षिणमास्थितौ ॥ ४२
अर्थात – रुद्र और राजयक्ष्मा- ये दोनों बायें हाथ पर अवस्थित हैं।
उसी प्रकार सावित्र और सविता दाहिने हाथ पर स्थित हैं।
विवस्वानथ मित्रश्च जठरे संव्यवस्थितौ ।
पूषा च पापयक्ष्मा च हस्तयोर्मणिबन्धने ॥ ४३
अर्थात – विवस्वान् और मित्र – ये उदर में तथा पूषा और पापयक्ष्मा – ये हाथों के मणिबन्धों में स्थित हैं ।
तथैवासुरशोषौ च वामपार्श्व समाश्रितौ ।
पार्श्वे तु दक्षिणे तद्वद् वितथः सबृहत्क्षतः ॥ ४४
अर्थात -उसी प्रकार असुर और शोष- ये बायें पार्श्वमें तथा दाहिने पार्श्वमें वितथ और बृहत्क्षत स्थित हैं।