समीक्षक नरेंद्र वैष्णव सक्ति जी की समीक्षा पर खरे उतरे रचनाकार ज्योति संजू और भावना

RAKESH SONI

समीक्षक नरेंद्र वैष्णव सक्ति जी की समीक्षा पर खरे उतरे रचनाकार ज्योति संजू और भावना

 

सारनी:- मनसंगी काव्यधारा समूह पर आयोजित प्रतियोगिता जिसका विषय शब्द *आरजू* रखा गया में ज्योति एन भावनानी ने प्रथम स्थान प्राप्त किया। द्वितीय स्थान पर संजू त्रिपाठी जी रही वही तृतीय स्थान भावना विधानी जी को मिला। आ. नरेंद्र वैष्णव सक्ति जी ने समीक्षा का कार्यभार संभाला।
रचनाएं आपके समक्ष प्रस्तुत है

विषय: आरज़ू

अगर आरज़ू न होती,
तो कुछ भी न होता,
मन में सभी के बस,
केवल संतोष ही होता।

न लालच ही होती,
न भ्रष्टाचार होता,
हर जगह पर केवल,
शिष्टाचार ही होता।

न कोई लड़ाई ही होती,
न झगड़ा कहीं पर होता,
सम्पति की लालच में,
न घर परिवार कोई टूटता।

न किसी से ईर्ष्या ही होती,
न कोई दगा कहीं पर होता,
हर जगह पर आपस में,
बस प्यार ही प्यार होता।

न मोह माया होती,
न अश्लील काया ही होती,
जिस्मों का कहीं भी,
कोई व्यापार न होता।

न किसी की मजबूरी का,
अनावश्यक फायदा कोई लेता,
हर जगह पर बस केवल,
कायदा कानून ही होता।

दुनिया में हर कहीं पर,
बस सच्चाई ही होती,
हर मनुष्य यहां पर,
ईमानदार ही होता।

हर देश की शायद,
इतनी तरक्की न होती,
पर फिर भी अपने घरों में,
हर कोई सुखी और खुश होता।

आरज़ू से ही रचा था,
रामायण व महाभारत इक दिन,
अगर आरज़ू न होती,
तो क्यों इतना कत्लेआम होता।

है कल से लाख अच्छा,
आज का ये जीवन हमारा,
पर आरज़ुओं ने बेरंग,
इसे बेहद ही बनाया।

जो आरज़ू न होती,
तो हर तरफ सुख चैन होता,
बिन आरज़ुओं के,
ये जीवन बेहद हसीन होता।

ज्योति एन भावनानी,गांधीधाम,कच्छ।

मेरी आरजूएं भी आरजू के ही पहलू में आकर थक के सो गई,
बीतते वक्त के साथ वो भी जैसे बीते वक्त की ही बात हो गई।
ना कभी उन्हें पूरी करने की कोशिश की ना कभी खुद पूरी हुई,
जिम्मेदारियों की भीड़ में ना जाने कब और कहाँ सब गुम हो गई।

डॉ. संजू त्रिपाठी
-“एक सोच”

” मेरी पहली आरजू”
प्रतियोगिता के लिए

मेरी पहली आरजू अगर कोई मुझसे पूछे ऐ खुदा,
मैं चाहूं जीते जी माता-पिता ना हो मुझसे कभी जुदा।
थाम कर उंगली मेरी जिन्होंने मुझे है यह दुनिया दिखलाई,
हर बार उन्हें याद कर मेरी ये आंखें हैं भर आई।
हर बार दुआओं में रब से बस यही मांगती हुं,
ताउम्र खुश रहे मेरे माता पिता बस यही चाहती हूं।
माता-पिता बच्चों के लिए सपने तोड़ देते हैं,
वही बच्चे बुढ़ापे में उन्हें अकेला छोड़ देते हैं।
मेरी सपने मेरी खुशियां मेरी ख्वाहिशे मैं उन पर वार दूं,
गर मेरे माता-पिता मेरे साथ रहे मैं उनकी जिंदगी संवार दुं।

सौ, भावना विधानी

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