मनसंगी साप्ताहिक प्रतियोगिता में सफल रहे कलमजीत,नरेंद्र,व व्यंजना दीदी। समीक्षा का श्रेय आदरणीय श्याम मठपाल जी
सारनी:-मनसंगी साहित्य संगम के तत्वाधान में आयोजित प्रतियोगिता विषय मुक्त में तीन रचनाकार जिन्हे क्रमशः प्रथम द्वितीय तृतीय स्थान प्राप्त हुआ उनके नाम कमलजीत जी , नरेंद्र वैष्णव जी, व्यंजना आनंद मिथ्या जी है जिनकी रचनाएं .
शीर्षक= आन मिल
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2122/2122/2122/212
मैं दरस की हूँ दिवानी, श्यामसुन्दर आन मिल
मिट रही मीरा दिवानी,श्याम मोहन आन मिल
घूमती तेरी प्रिया है, प्यार की वीणा लिये
जग बना बैरी हमारी, श्याम निर्गुण आन मिल
ला ल ला ला ला ल ला ला ला ल ला ला ला ल ला
प्यास बुझती क्यूँ नहीं है मिल रही शर्बत नहीं
आँख से सूरत दिखा दे, श्याम किसना आन मिल
हर गली में हर शहर में, दूँढ़्ती तेरे निशां
कर कृपा दासी खड़ी ये, श्याम छलिया आन मिल
ला ल ला ला ला ल ला ला ला ल ला ला ला ल ला
कह रही ये जो हवाएं, कान में धीरे किसन
दर्द सी मन में उठाती, श्याम सुखदे आन मिल
घिर रही है श्याम सी जो, ये घटायें शीष पर
लग रही है श्याम सी ये, श्याम केशव आन मिल
ला ल ला ला ला ल ला ला ला ल ला ला ला ल ला
जल रही है रूह मेरी, तन बदन माटी हुआ
फिर बनी मूरत किसन की,श्याम लाला आन मिल
आँख में सूरत किसन की, देखती मैं आसमां
गिर पड़ो तुम मेघ बनके,श्याम हंसा आन मिल
ला ल ला ला ला ल ला ला ला ल ला ला ला ल ला
एक धुन सी तू बजा दे कान में मेरे किशन
बाँसुरी ये रूह हो जा, श्याम मुरली आन मिल
चाँद नभ पर गीत गाकर, प्रेम रस बरसा रहा
भिंगना चाहू पिया मैं, श्याम अमृत आन मिल
ला ल ला ला ला ल ला ला ला ल ला ला ला ल ला
बह रही नदियाँ सनातन, धार इसकी देख ले
मैं मरी डूबी नयन में, श्याम दाता आन मिल
मैं बरसती बूँद सी हूँ, तू समन्दर सा यहां
बह मिलूँ बनके नदी मैं, श्याम सागर आन मिल
ला ल ला ला ला ल ला ला ला ल ला ला ला ल ला
मन हुआ है बांवरा सा, आँख से सागर गिरे
फिर बुझी क्यूँ उर अगन ना, श्याम रसिया आन मिल
पी रही हूँ मैं हलाहल,पीड़ ज्वाला बन गई
सुन अभी मेरी तमन्ना,श्याम कान्हा आन मिल
ला ल ला ला ला ल ला ला ला ल ला ला ला ल ला
मैं दरस की हूँ दिवानी, श्यामसुन्दर आन मिल
मिट रही मीरा दिवानी,श्याम मोहन आन मिल
ला ल ला ला ला ल ला ला ला ल ला ला ला ल ला
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विधा-गीतिका
मात्रा भार 14+12=26
✍कमलजीत कुमार
प्रभारी प्राचार्य
जी ए इंटर स्कूल लालगंज
*भाव पदावली*
*जाग उठे मन में तरुणाई*
रिश्तों में कैसी खाई है ।
आह ! न भरते भाव यहाँ पर ,
टीस अजब सी अब आई है ।।
स्वार्थ अंध में फँसा हुआ नर ,
बना गात्र से यहाँ कसाई ।
दूजे की अब पीर न दिखती ,
लोलुपता अंतस में छाई ।।
मानस रोग लगा यह कैसा ?
क्यों न हुआ तन- मन परसाई ।
समझ जरा सी पीर सभी की ,
संतों ने जो बात बताई ।।
थोड़ा मन अनुगुंजित कर अब ,
धार हृदय में प्रभु को भाई ।
वैतरणी वो पार लगाते ,
बजे हृदय हरि की शहनाई ।।
तब कण-कण सुंदर लगता है ,
जाग उठे मन में तरुणाई ।
उससे जग का भला करें फिर ,
होगी तन से पाप रिहाई ।।
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*व्यंजना आनंद ‘ मिथ्या ‘*
*”घनाक्षरी”*
*=== कृपाण घनाक्षरी ======*
8,8,8,8 = 32 वर्ण , अंत 21
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धैर्य शौर्य सैन्य धारे , देश शान सूर्य-तारे ।
शक्ति पुंज जोश सारे , करे रक्षा सीमा वीर ।।
त्याग राग-द्वेष रंग , नित्य रहे ज्ञान संग ।
दिखे बल हर अंग , चले बुद्धिमान धीर ।।
मित्र जग जन माने , शत्रु संग प्रण ठाने ।
जीत रीत शुभ जाने , चले रण क्षेत्र हीर ।।
मार आज शत्रु सब , खींच रक्त निज लब ।
आया साज मान जब , बाँटे देश जीत खीर ।।
*”(नरेन्द्र वैष्णव “सक्ती”)”* का चयन किया गया।